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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।

उत्तर -

मार्क्सवाद ने साहित्य को बड़े व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। 1936 से लेकर 1947 तक का हिन्दी साहित्य मार्क्सवादी चिन्तनधारा से पूरी तरह अनुप्राणित है। लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ भी उभर कर सामने आती हैं।

वह साहित्य जो मार्क्सवादी चिन्तन से प्रेरित होकर लिखा गया है उसका मूल्याँकन साहित्यिक मान मूल्यों के आधार पर तो ठीक है, लेकिन वह साहित्य जो मार्क्सवादी सिद्धान्तों पर नहीं है, जैसे तुलसीदास, बिहारी एवं भारतेन्दु आदि का काव्य, उसका मूल्याँकन मार्क्स की धारणा के अनुसार करना विवादास्पद हो जाता है। उनमें लोक-कल्याण या लोक विरोधी तत्वों को खोज निकालना अपेक्षाकृत सरल है, मगर जब उन तत्वों को मार्क्सवाद के सिद्धान्त के आधार पर प्रामाणिक मानने का सवाल आता है तो वहाँ मतभेद हो सकता है। इस सन्दर्भ में मेरा कहना है कि मार्क्स ने अपने सिद्धान्त में जिन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमता को समझाने एवं उनके कारणों को बताने का यत्न किया है। उनकी पहचान हिन्दी साहित्य को अपने शुरूआती काल से ही थी। एक सिद्धान्त के रूप में या एक वाद के रूप में मार्क्स ने इनका प्रतिपादन उन्नीसवीं शती में किया लेकिन हिन्दी साहित्य में इन विषमताओं का निरूपण किसी न किसी रूप में प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। यह प्रवृत्तियाँ साहित्य में स्वतः सिद्ध हैं। अगर हम बात मध्यकाल से आरम्भ करें तो पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल ) के प्रधान रचनाकारों में सबसे पहले हमारे सामने कबीर, तुलसीदास, मीरा उपस्थित होते हैं। कबीर की ज्यादातर वाणियाँ वर्ग- संघर्ष एवं वर्ग विरोध की भावना पर आधृत हैं। वर्ग संघर्ष को उभारते हुए वे लिखते हैं-

एक देंह एकै मलमूतर एक चाम एक गूदा
एक ज्योंति ते सब उत्पाना को बामन को सूदा

वे अपने समय के शोषण के प्रतीक ब्राह्मणों (मार्क्स के शब्दों में बुर्जुवा ) को चुनौती देते हुए कहते हैं - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

अब जरा तुलसी पर भी विआचर कर लिया जाये यों तो तुलसीदास भक्त थे ! लेकिन वे अपने समय की समस्याओं को नजरअंदाज नहीं कर सके थे। रामचरितमानस एवं अन्य कृतियों में मध्यकालीन विषमताएँ बार-बार झलक मारती हैं। इस मामले के वे भक्तिकाल महान कवि सूर को भी बहुत पीछे छोड़ देते हैं।

कवितावली में आर्थिक विषमताओं का बढ़िया जिक्र हुआ है। राम केवट से नौका माँगते है गंगा को पार करने के लिए तो केवट बड़े स्पष्ट शब्दों में कहता है -


पात भरी सहरी सकल सुत बारे बारे
केवट की जाति हूँ कछु भेद न पढ़ाइहौं
सब परिवार मेरो याही लागि राजाजू हौं
दीन वित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं
गौतम की धरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी
प्रभु सों निषाद हवै के बात न बढ़ाइहौं
तुलसी के ईश राम रावौ से साँची कहूँ
बिनु पग धोए नाथ नाव न चढ़ाइहौं।

यानी हे ! प्रभु ! पत्तल भर मछली ही मेरी जीविका का आधार है। मेरी जाति केवट की है। बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं। मैं उन्हें वेद भी नहीं पढ़ा सकता कि वे अपना पेट भर सकें (वेद पढ़ने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को था) मेरा सारा परिवार इसी नाव पर आश्रित है। इसी से सबका भरण-पोषण होता है। अगर यह आपके चरण का स्पर्श पाते ही स्त्री बन गयी तो मैं बड़ा गरीब हूँ दूसरी नौका नहीं गढ़ा पाऊँगा। एक और स्त्री का बोझ मेरे ऊपर बढ़ जायेगा। इसलिए हे प्रभु ! मैं केवट हूँ और आप राजा हैं। मैं आपसे बात नहीं बढ़ाना चाहता हूँ, लेकिन एक बात तो आप जान ही लीजिए कि बिना आपका पाँव धोए मैं आपको नौका पर नहीं चढ़ा सकता।

तुलसी ने राम को यहाँ भगवान के रूप में या सन्यासी के रूप में नहीं प्रस्तुत किया है। राम राजा है यानी सामन्ती व्यवस्था के प्रतीक हैं। केवट एक भक्त ही नहीं है वह शोषित वर्ग यानी प्रजा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। राम के प्रति केवट का यह कथन भगवान के प्रति भक्त की श्रद्धा नहीं है, बल्कि सर्वहारा वर्ग का सामन्ती व्यवस्था को चुनौती देना है। अतः उपरोक्त कवित्र में वर्ग संघर्ष स्वतः उभर कर आता है।

जहाँ तक मीरा का सवाल है। उनका पूरा साहित्य घर की चारदीवारी में कैद पुरुष वर्ग के भोग विलास की सामग्री स्त्री की पीड़ा एवं वेदना का साहित्य है। मीरा का घर से निकलकर स्वच्छन्द घूमना उस सामाजिक व्यवस्था एवं पुरुषवादी मानसिकता का विरोध है। जो स्त्री को केवल, उपभोग की वस्तु मानता है।

मीरा के पति राणा का जो विरोध है वह उनकी भक्ति को लेकर नहीं है बल्कि उन मूल्यों को टूटने को लेकर ऐह जिनेक आधार पर समाज में जाँति पाँति ऊँच नीच कर भेदभाव किया जाता है।

अब हम रीतिकाल में बिहारी पर विचार करते हैं। जहँ तक बिहारी का सवाल उनका पूरा साहित्य केवल नायिका भेद पर नहीं आधारित है। उसमें भी तत्कालीन साहित्य समाज की झलक मिलती है। समाज में शोषण की प्रक्रिया कैसे चलती थी इसका पता बिहारी के एक दोहे से चलता है -

बहु धन लै अहसान के पारौ देत सराहिं
बैदबधू हँसि भेदसों रही नाह मुँहचाहिं

आधुनिक युग के प्रवर्तक भारेतन्दु की मूल चिन्ता राष्ट्र की थी। अंग्रेजों द्वारा शोषण का विरोध करते हुए वे लिखते हैं-

अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी
पैधज विदेश चलि जात इहै अति वारी।

अतः मैं यही कहना चाहता हूँ हिन्दी साहित्य का बहुतायत हिस्सा में मार्क्सवाद स्वतः सिद्ध है और मार्क्सवादी मानमूल्यों के आधार पर इनके मूल्याँकन में कोई खास दिक्कत नहीं आनी चाहिए।

मार्क्सवाद की साहित्य विषयक एक सीमा उसकी पूर्वग्रह युक्त आलोचना दृष्टि को लेकर है। यदि कोई समीक्षक पहले से ही एक विशिष्ट सिद्धान्त को आदर्श मानकर उसकी कसौटी पर सम्पूर्ण साहित्य को परखने की कोशिश करे तो क्या यह कोशिश स्वीकार्य होनी चाहिए? क्या इस प्रकार का पूर्णतः अनुशासित अध्ययन आलोच्य कृति के साथ न्याय कर सकेगा? क्या ऐसी आलोचना कृति की मूल एवं प्रधान संवेदना को ग्रहण करके उसके सभी पक्षों को समुचित महत्व प्रदान कर सकेगी? प्रत्येक आलोचक के अपने कुछ सिद्धान्त होते हैं, कुछ आदर्श होते हैं जिन्हें वह किसी भी कृति के अध्ययन में प्रयुक्त करता है। मगर कुछ सामान्य सिद्धान्तों का होना एक बात है और रचना तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष एवं स्थिति के बारे में पूर्णतः निर्धारित सिद्धान्तों पर आस्था होना दूसरी बात है। मार्क्सवादी समीक्षा या किसी भी समीक्षा से पूर्णतः पूर्वाग्रहहीन होने की अपेक्षा करना मान्य नहीं है मगर किसी समीक्षा का पूर्णतः पूर्वाग्रह युक्त होना भी एक ऐसी स्थिति का वाचक है जो अतिवाद होने के नाते आलोचना कर्म के साथ न्याय नहीं कर सकती। जिस प्रकार पूर्णतः पूर्वाग्रहमुक्त होने की सीमाएँ हैं उसी प्रकार पूर्णतः पूर्वाग्रह युक्त होने की भी सीमाएँ स्पष्ट ही हैं।

आलोचना का प्रधान दायित्व कृति के प्रति है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अपने सिद्धान्तों, अपनी मान्यताओं की अपेक्षा करे। मगर चूँकि वह कृति को केन्द्र बनाता है, कृतिकार को, उसके युग को भी अपेक्षित महत्व देता है। अतः अपने पूर्वाग्रहों को पूर्णतः कृति पर आरोपित करना समीक्षा के क्षेत्र में विषमता पैदा करना होगा। इस प्रकार के प्रयास का व्यापक सामाजिक, राजनीतिक सन्दर्भ में महत्व हो सकता है और होता है, मगर साहित्यिक आलोचना के रूप में उसका महत्व सीमित ही होगा।

मार्क्सवादी समीक्षा दृष्टि ऐतिहासिक सन्दर्भ में रचना का अध्ययन, मूल्याँकन करती है। इतिहास - सापेक्ष दृष्टि होने के कारण उसका कार्यक्षेत्र व्यापक होता है तथा वह कृति के उन आचार्यों को भी उद्घाटित करने में समर्थ होती है जो अन्य आलोचना पद्धति द्वारा उपेक्षित हो सकते हैं। तुलसी, कबीर, भारतेन्दु आदि के साहित्य का मूल्याँकन युग सापेक्ष दृष्टि से किया जा सकता है। यह देखा जाता है कि कोई भी कृतिकार अपने युग जीवन में व्याप्त शक्तियों में से किनके साथ है। इस युग सापेक्षता को विस्तार से समझना आवश्क है। प्रत्येक युग में समाज में दो वर्ग होते हैं तथा इन दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्दों के दो रूप या दो चरण हो सकते हैं। एक रूप में तो ये सम्बन्ध आदर्श हो सकते हैं, ऐसे हो सकते हैं जो सामाजिक जीवन में कल्याण के साधक हों, और दूसरा रूप ऐसा हो सकात है जहाँ इन सम्बन्धों में सन्तुलन का अभाव हो तथा जहाँ व्यापक जन-जीवन का कल्याण साध्य न होकर शासक वर्ग के सीमित स्वार्थ ही साध्य बन जाते हैं। इतना ही नहीं शासक वर्ग के सुख एवं आनन्द के लिए शासित वर्ग, व्यापक समाज पर अत्याचार किया जाता है, उसका शोषण किया जाता है। यह रूप समाज विरोधी शक्तियों को पल्लवित करता है। अतः युग सापेक्षता के स्तर पर यह देखने का प्रयास किया जाता है कि कोई कवि या कृतिकार कहाँ तक व्यापक जन-जीवन को समृद्ध करता है तथा उसके हितों को साध्य बनाता है। यदि उसमें ऐसा नहीं है तो स्पष्ट है कि वह साहित्य स्वीकार्य नहीं हो सकता। जो कृति जन-जीवन के कल्याण के साथ संबद्ध है, वही मूल्यवान है, वह प्रगतिशील है। किसी साहित्यकार की अपने बारे में जो धारणा है उसके आधार पर उसकी कृतियों का मूल्याँकन नहीं किया जा सकता है और यह बात मार्क्सवादी समीक्षा में भी स्वीकार्य नहीं है अगर किसी कवि का प्रधान प्रतिपाद्य भक्ति या दर्शन है, या वह ईश्वर व परलोक साधना को ही प्रधान मानता है तो यह आवश्यक नहीं कि मार्क्सवादी समीक्षा में भी उसे ही प्रधान माना जाये। हो सकता है कि मार्क्सवादी समीक्षा पद्धति में वह तत्व गौण हो या महत्वहीन हो। इस प्रकार मार्क्सवादी समीक्षा साहित्य के परीक्षण-मूल्यांकन में कृति की समग्रता की कवि की दृष्टि से कृति की समग्रता को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। वह साहित्य में से उन्हीं तत्वों को स्वीकार करती है, उन्हीं की समीक्षा करती है, जो उसकी अपनी दृष्टि में महत्वपूर्ण हों। ऐसी दशा में वे तत्व छूट सकते हैं और छूट जाते हैं जो कवि के प्रधान लक्ष्य से संबद्ध होते हैं।

मार्क्सवादी समीक्षा में एक विकल्प चयन का हमारे सामने है। सभी कृतियों में समीक्षक उन्हीं तत्वों को अपने मूल्याँकन का आधार बनाना है जो मार्क्सवादी सिद्धन्तों से मेल खाते हैं। लेकिन इसकी भी एक सीमा है। जरूरी नहीं है अधिकांश तत्व मार्क्सवादी सिद्धान्तों के अनुरूप हों। यदि किसी कृति में अधिकांश तत्व मार्क्सवादी सिद्धान्तों के अनुरूप न हों तो समीक्षक कृति एवं कृतिकार के साथ न्याया नहीं कर पायेगा। यह बात केवल मार्क्सवाद के सन्दर्भ में नहीं अन्य पद्धतियों के सन्दर्भ में भी ठीक है, क्योंकि जब भी समीक्षक कुछ बँधे बँधाएँ नियमों की समीक्षा करेगा तो समीक्षा की सीमाएँ उभर कर आयेंगी।

जनवादी शक्तियों को पुष्ट करना, उन्हें संगठित एवं सशक्त करना तो मार्क्सवादी समीक्षा के अनुसार कृति का महत्वपूर्ण गुण है ही, मगर साथ ही ऐसा साहित्य भी महत्वपूर्ण है जो शासक वर्ग के बीच के ह्रास को, उसके आन्तरिक संघर्ष एवं खोखलेपन को उसकी मानवद्रोही प्रवृत्ति को जीवन्त रूप देता है। इस प्रकार के चित्रण से भी जनवादी शक्तियों का पक्ष सशक्त होता है तथा शोषक वर्ग का पक्ष कमजोर होता है।

उपरोक्त विवेचन से प्रधान तत्व यह उभरकर आता है कि मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि में साहित्य एवं प्रचार के सम्बन्ध की समस्या ही प्रधान समस्या है। यदि साहित्य कार एक पूर्व निर्धारित चिन्तन पद्धति के अनुसार रचना करता है तो इस प्रकार की रचना पद्धति की प्रक्रिया की कृतिमता के अतिरिक्त यह आपेक्ष लगाया जा सकता है कि क्या साहित्य प्रचार का साधन है? क्या साहित्य पूर्णतः किसी दर्शन का दास होकर रह सकता है? क्या साहित्य पूर्णतः किसी दर्शन का दास होकर रह सकता है? और भी बुनियादी समस्या यह है कि क्या मार्क्सवाद ही जनवादी दृष्टि का एक मात्र प्रतिनिधि सिद्धान्त है? और विशेषकर आज के सन्दर्भ में, जबकि मार्क्सवाद का अनुसरण करने वाले देशों में भी मार्क्सवाद के सही अर्थ एवं स्वरूप में बुनियादी मतभेद ही नहीं विरोध भी हैं, यह समस्या और भी अधिक महत्वपूर्ण हो उठती है। इसमें सन्देह नहीं कि एक गतिशील दृष्टि होने के कारण मार्क्सवादी चिन्तन के युग के अनुरूप, परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन आ जाना स्वाभाविक ही है, मगर आज के अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में मार्क्सवाद की विरोधी व्याख्याओं के कारण तथा मार्क्सवाद का अनुकरण करने वाले राष्ट्रों एवं राजनैतिक दलों के आपसी तीव्र विरोध होने के कारण मार्क्सवादी समीक्षा विषय पर भी अनेक प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं। जब आर्थिक राजनैतिक क्षेत्र, जोकि मार्क्सवाद का प्रधान क्षेत्र है, तीव्र विरोध है तो मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि के संकट के बारे में अधिक कहने की आवश्यका नहीं रह पाती।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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